ओशो टाइम्स से एक कविता
रंग में, धर्म में, देश में, बँट रहा आज तक आदमी रेख भूगोल पर खींच दी, वो हमारे वतन हो गए । खून आदम की औलाद का, मंत्र से पूत जल बन गया , धर्म, जो प्रेम के गीत थे, आदमी का कफ़न हो गए । नापता अपनी नहीं दूरियां, नापता चाँद को आदमी, और इन्सान के फासले , अजनबी सी घुटन हो गए । बँट गया नीलवर्णी गगन, बँट गई ये धरा श्यामल, और बारूद-गंधी पवन, भोगते ही जनम हो गए । आदमी ब्रह्म का अंश है, आदमी देव का वंश है, ये विशेषण हमारे लिए, आत्मभोगी अहम् हो गए ।। ओशो ।।
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